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पौराणिक कथाएँ >> सती सावित्री

सती सावित्री

महेन्द्र मित्तल

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :40
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3938
आईएसबीएन :81-310-0156-3

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यमराज से अपने पति के प्राण वापस लाने वाली नारी की गाथा.....

Sati Savitr

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

देवी का वरदान

मद्रदेश में अश्वपति नाम का एक बड़ा धार्मिक और ब्राह्मण सेवी राजा था। वह अत्यंत उदारहृदय, सत्यनिष्ठ, जितेंद्रिय, दानी, चतुर, पुरवासी और देशवासियों का प्रिय, समस्त प्राणियों के प्रति हितकर और क्षमाशील राजा था, लेकिन वह निःसन्तान था, जिसका उसे सबसे बड़ा दुख था।

एक बार ब्राह्मणों के कहने पर उसने अट्ठारह वर्ष तक अपनी धर्मपत्नी के साथ बन में देवी सावित्री की तपस्या की। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर देवी सावित्री ने उसे संतान प्राप्ति का वरदान दिया।
‘‘राजन ! विधाता ने तुम्हारे भाग्य में संतान-सुख नहीं लिखा है, किंतु मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूं। तुम्हें अपने पुण्य कर्मों का फल अवश्य प्राप्त होगा। अब तुम अपने राज्य वापस जाओ। आज से ठीक नौ माह पश्चात तुम्हारी पत्नी के गर्भ से एक ऐसी संतान उत्पन्न होगी, जो तुम्हारे सोए हुए भाग्य को सौभाग्य में परिवर्तित कर देगी।’ वरदान देकर देवी अंतर्धान हो गई।

सावित्री का जन्म


महाराज अश्वपति और महारानी अट्ठारह वर्ष बाद अपने राज्य वापस लौटे तो प्रजा ने उनका भव्य स्वागत किया। कुछ ही दिनों बाद लोगों को इस बात की जानकारी मिल गई कि महारानी गर्भवती हैं। पूरे राज्य में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई।
ठीक नौ माह दसवें दिन प्रातःकाल के समय महारानी ने चंद्रकला के समान एक सुंदर कन्या को जन्म दिया। कन्या के जन्म का शुभ समाचार देने वाली दासी को राजा ने अपने गले का बहुमूल्य मोतियों का हार उछाल दिया, ‘‘आज तुमने हमारी झोली खुशियों से भर दी है रत्ना !’’ महाराज ने कहा, ‘‘हम तुम्हें महारानी की मुख्य सेविका नियुक्त करते हैं।’’
दासी रत्ना महाराज को बधाई देकर प्रसन्न होती हुई वहां से चली गई।

नामकरण एवं शिक्षा


कन्या के जन्म की खुशी सारे राज्य में मनाई गई। ब्राह्मणों, विद्वानों और निर्धनों को जी खोलकर दान दिया गया। कुलगुरु राजपुरोहित और राजज्योतिषी ने काफी विचार-विमर्श के उपरांत कन्या का नाम रखा ‘सावित्री’।
सावित्री जब कुछ बड़ी हुई तो उसे गुरुकुल में विद्याध्ययन के लिए भेज दिया गया। उस युग में नारी की स्वतंत्रता पर कोई रोट-टोक नहीं थी। उसे मर्यादित आचरण की शिक्षा दी जाती थी। गुरुकुल में रहकर सावित्री ने धर्म, संस्कृति और सभ्यता कि शिक्षा ग्रहण की। अपने सदाचार की शक्ति के बल पर वह सदैव अपने धर्माचरण और संकल्प पर दृढ़ रहती थी। सावित्री का हठी स्वभाव उसका अवगुण नहीं, गुण था, क्योंकि हठ में वह अपना विवेक नहीं छोड़ती थी।

वर की खोज


समय के साथ-साथ सावित्री युवा हो गई। उसका रूप-सौंदर्य अत्यंत आकर्षक था। उसके कदम जहां भी पड़ते थे, वहीं सुख-सौभाग्य स्वतः खिंचा चला आता था।
युवा पुत्री को देखकर महारानी को उसके विवाह की चिंता सताने लगी। महाराज ने वर की तलाश में दूतों को भेजा, लेकिन सभी निराश वापस आ गए। महारानी और महाराज चिंतित हो उठे।
तभी उनके मंत्री ने उन्हें सलाह दी, ‘‘महाराज ! राजघरानों की परंपरा के अनुसार राजकुमारियां अपना वर स्वयं तलाश करती हैं। स्वयंवर की प्रथा इसी आधार पर बनाई गई है। हमें भी राजकुमारी सावित्री को तीर्थाटन के बहाने राज्य के बाहर भेजना चाहिए। शायद कोई उपयुक्त वर मिल जाए।’’

तीर्थ यात्रा पर सावित्री


माता-पिता से आज्ञा लेकर सावित्री एक रथ पर सवार होकर तीर्थाटन के लिए निकल पड़ी। राजकुमारी के साथ मंत्री श्रीधर, कोचवान और दो सशस्त्र सेवक थे।
राजकुमारी से यही कहा गया था कि वह कुछ दिन तीर्थाटन कर आएगी तो उसका मन बहल जाएगा और राज्य से बाहर जन-जीवन कैसा है, यह भी वह जान पाएगी। ग्रहों की प्रतिकूल दशा भी तीर्थस्थलों का दर्शन-पूजन कर संभवतया अनुकूल बन जाए, महारानी और महाराज ने मन ही मन यह भी सोचा था।

तीर्थयात्रा पर जाने की बात सुनकर राजकुमारी सावित्री बहुत खुश हुई। कुछ दिनों से वह स्वयं यह महसूस कर रही थी कि उसका मन कुछ खिन्न-सा था। राजमहल की चारदीवारी के बीच उसका मन बुझा-बुझा सा रहने लगा था। वह स्वच्छंद हिरणी की भांति प्रकृति के मध्य कुलांचे भरने को आतुर हो रही थी। वह अपनी प्रजा को निकट से देखना चाहती थी।


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